बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 8)

बिल्लेसुर सत्तीदीन के यहाँ रहने लगे। 


ऐसी हालत में गरीब की तहजीब जैसी, दबे पाँव, पेट झुलाये, रीड़ झुकाये, आँखें नीची किये आते जाते रहे।

 उठते जोबन में सत्तीदीन की स्त्री को एक सुहलाने वाला मिला।

 दो-तीन दिन तक भोजन न खला।

 एक दिन औरतवाले कोठे जी गया।

नक्की सुरों में बोली, ‘‘मैं कहती हूँ, बिल्लेसुर तुम तो आ ही गये हो और अभी हो ही, इस चरवाहे को विदा क्यों न कर दूँ ? 

हराम का पैसा खाता है।

 कोई काम है ? घास खड़ी है, दो बाझ काट लानी है; नहीं, पैर की बँधी मूँठें हैं-यहाँ-वहाँ का जैसा धान का पैरा नहीं-बड़ा-बड़ा कतर देना है

 और थोड़ी सी सानी कर देनी है, देश में जैसे डण्डा लिये यहाँ ढोरों के पीछे नहीं पड़ा रहना पड़ता, लम्बी-लम्बी रस्सियाँ तीन गायें हैं, घास खड़ी है, बस गये और खूँटा गाड़कर बाँध दिया,

 गायें चरती रहीं, शाम को बाबू की तरह टहलते हुए गये और ले आये, दूध दुह लिया, रात को मच्छड़ लगते हैं, गीले पैरे का धुवाँ दे दिया; कहने में तो देर भी लगी।’’

 कहकर सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमायी और दोनों होंठ सटाने शुरू किये।


बिल्लेसुर चौकन्ने। ढोरे चराने के लिए समन्दर पार नहीं किया। यह काम गाँव में भी था। 

लेकिन परदेश है। अपना कोई नहीं। दूसरे के सहारे पार लगना है। सोचा, तब तक कर लें; नौकरी न लगी तो घर का रास्ता नापेंगे।


बिल्लेसुर को जवाब देते देर हुई। सत्तीदीन की स्त्री ने कनपटी घुमायी कि बिल्लेसुर बोले, ‘‘कौन बड़ा काम है। 


काम के लिए ही तो आया हूँ सात सौ कोस-देस सात सौ कोस तो होगा ?’’

   0
0 Comments